बुधवार, 3 नवंबर 2010

कृष्णमूर्ति पद्धति के आधारभूत सिद्धान्त

कृष्णमूर्ति पद्धति के आधारभूत सिद्धान्त

१.     ज्योतिष की आम पद्धतियों में प्रायः यह देखा जाता है कि किसी भाव की राशि कौन सी है, परन्तु कृष्णमूर्ति पद्धति में यह देखा जाता है कि भाव के प्रारम्भिक बिन्दु पर कौन सी राशि है इसे तथा प्रारम्भिक बिन्दु पर कौन सा नक्षत्र है कृष्णमूर्ति पद्धति की भाषा मे इसे कहा जाता है कि अमुक भाव का कस्प फलां राशि तथा फलां नक्षत्र मे है ! उदाहरण के लिये मानो कुण्डली की लग्न मेष है लग्न स्पष्ट 0 राशि: 14 अंश: 25 कला: 20 विकला है अतः लग्न कस्प  मेष राशि तथा भरणी नक्षत्र में है अतः लग्न पर मंगल एंव शुक्र का सम्मिलित प्रभाव रहेगा ! समझने वाली बात यह है कि चूंकि लग्नेश मंगल है अतः जातक का स्वभाव, व्यक्तित्व, व्यवहार आदि मंगल के प्रक्रतिक गुणो के आधार पर होगा परन्तु लग्न का नक्षत्रेश शुक्र है जो कि मंगल के प्रक्रतिक गुणों में अपने प्रक्रतिक गुणों के अनुरूप संशोधन या परिवर्तन करेगा !

२.     समस्त ग्रह जिस भाव में स्थित होते हैं वहां फल प्रदान करते है अब प्रश्न ये कि फल क्या होगा तो फल का विषय वो भाव निर्धारित करेगा जिस या जिन भावों का वो ग्रह  स्वामी है अब प्रश्न यह उत्पन्न होगा कि फल की प्रक्रति या शुभता-अशुभता क्या होगी तो वह उस नक्षत्र स्वामी ग्रह के द्वारा निर्धारित होगी जिस नक्षत्र मे वह ग्रह स्थित है !

३.     कृष्णमूर्ति पद्धति में किसी ग्रह की नैसर्गिक शुभता - अशुभता के विषय में विचार नहीं किया जाता है न ही ग्रह की उच्च य नीच अवस्था का विचार किया जाता है ! ग्रह जिन जिन भवों का सूचक होता है उन भावों के सम्बन्धित फलों को अपनी द्शा अवधि मे प्रदान करता है यदि ग्रह उन्नतिकारक  भावों को सूचित कर रहा है तो शुभफल प्रदान करेगा यदि अवनतिकारक भावों को सूचित कर रहा है तो अशुभफल प्रदान करेगा !

४.     इस पद्धति में लग्न, द्वितीय, त्रतीय, षष्ठ्म, दशम तथा एकादश भाव को उन्नतिकारक तथा चतुर्थ, पंचम, सप्तम, अष्ट्म, नवम एंव द्वादश भव को अवनतिकारक माना जाता है !

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